जूते को मुक्ति, मगर इंस्पेक्टर के अहंकार को नहीं


जूते को मुक्ति, मगर इंस्पेक्टर के अहंकार को नहीं
करन चौधरी

मैं एक जूता हूं... कोतवाल का जूता....बेशक में आम जूतों की तरह सड़कों की धूल, थाने की ड्यूटी में पैरों की रक्षा के लिए रगड़मपट्टी से गुजरता होऊ, मगर कोतवाल के पैरों में होने से मैं अपराधियों के साथ पीड़ितों में ठोकर मारने के काम में भी लिया गया हूं। मैं न्याय को अन्याय की ओर मोड़ने की जुगत में बहुत से चाटुकारों को चाटने के काम भी आया हूं इस बात का मुझे हमेशा गर्व गुमान रहा है।

हालांकि खास आयोजनों पर मुझे आम जूतों की तरह बाहर उतारकर ही आदर की परंपरा निर्बहन की जाती है। साथ ही मंदिर अथवा किसी धार्मिक मंच पर तो दूर दरवाजे पर बाहर ही उतार दिया जाता है जहां में अक्सर लोगों के पैरों तले कुचला जाता हूं, पैरों के रौंदे जाने से मेरी चीख भले निकल जाए मगर मेरे लिए किसी के मन मे दया का भाव नहीं होता। किसी तीर्थ स्थल पर तो मेरी और बेकद्री होती है मुझे किसी जूता स्टैंड नामक जगह पर लावारिश की तरह छोड़ दिया जाता है वहां सैकड़ों पुराने बदबूदार जूते, चप्पलें, सैंडिल, मेरे ऊपर लदने से मेरा दम भले ही घुट जाए मगर मुझपर कोई रहम नहीं खाता.. इतना सहकर भी में यह सोचकर खुशी से हंस लेता हूं कि चलो कम से कम में (मालिक) के पाप को हल्का करने में सहायक होकर ईश्वर के धाम तक तो पहुंचा। मगर हरदुआगंज में श्रीराम बारात शोभायात्रा में मेरा रोल कुछ ज़्यादा ही चमक गया। आयोजन में मुख्य अतिथि बनाए गए मालिक के पाँवों में सजा हुआ ही मंच पर चढ़ा और भक्तों के बीच एक हल्की-सी खलबली मचा दी। मर्यादा के उस पावन मंच में मुझे पहने हुए मालिक बेशक अमर्यादित दिखे मगर मुझे तो जैसे मुक्ति मिल गई, फिर गुमान हुआ कि आखिर मैं कोतवाल का जूता हूं।

मंगलवार 23.9.2025 हरदुआगंज में श्रीराम बारात शोभायात्रा का भक्तिमय माहौल देखने ही बनता था। झांकियाँ सजी थीं, भजन गूंज रहे थे, और भक्तों का उत्साह सातवें आसमान पर था। घोड़ा बग्गी पर विराजमान श्रीराम के स्वरूप की आरती के साथ मंच पर फीता काटने का शुभ अवसर था। सभी अतिथि नंगे पांव परंपरा का आदर करते हुए मंच पर खड़े थे। लेकिन मेरे मालिक, (कोतवाल) वो मुझे पहने हुए मंच पर चढ़ गए, जैसे कह रहे हों, कोतवाल होने का इतना रौब तो बनता है, राम जी भी समझ जाएंगे" मैं, सोच रहा था, "भाई, ये तो मेरी ज़िंदगी का सबसे बड़ा मूमेंट है—लेकिन वहां कैमरे की तीसरी नजर के साथ दर्शकों की नजरें अलग ही कहानी बयां कर रही थीं।

जहां मंच पर मेरी एंट्री ने दर्शकों के बीच चर्चा ने एक सवाल खड़ा कर दिया "कोतवाल साहब ने जूते क्यों नहीं उतारे?" कोई बोला, "शायद ड्यूटी का दबाव है।" कोई मुस्कुराया, "लगता है जूते को भक्ति का टिकट मिल गया!" मैं तो खुश था—आखिर, रोज़ धूल झेलने वाला जूता आज राम जी की बारात में स्टार बन गया। लेकिन वो नज़रें, वो खुसुर-फुसुर—कह रही थीं कि ये जूते की मुक्ति नहीं, बल्कि कोतवाल के अहंकार का प्रदर्शन है। श्रीराम जी का जीवन मर्यादा सिखाता है "और मर्यादा में तो जूते उतारना ही पड़ता है।लेकिन कोतवाल होने के अहंकार ने मर्यादा ही तोड़ दी।

फीता कट गया, शोभायत्रा शुरू हो गई। लेकिन दर्शकों की नज़रों ने मुझे घूरना बंद नहीं किया जैसे मैं कोई बिन बुलाया मेहमान हूँ। जैसे कह रहे हैं कि कोतवाल साहब आपकी ड्यूटी का रौब तो ठीक है, मगर राम जी के सामने थोड़ा झुकना भी बनता है। " मैंने मन में हंसते हुए सोचा, "भाई, मैं तो बस कोतवाल का जूता हूँ, मेरी क्या गलती? हालांकि कोई उन्माद नहीं हुआ,क्योंकि

श्रीराम के भक्तों का दिल बड़ा है। वो नाराज़ नहीं हुए, बस उन्हें थोड़ा अचरज हुआ। राम जी तो हर चूक माफ कर देते हैं, और भक्तों ने भी यही किया। जैसे कह रहे हो मर्यादा के मंच पर बेशक कोतवाल का अहंकार ना उतरा हो मगर जूते को तो मुक्ति मिल गई, शोभायात्रा में साहब की ड्यूटी भी भक्ति का हिस्सा है, लेकिन जूते उतार लेते तो मर्यादा और चमकती। श्रीराम की भक्ति में प्यार और मर्यादा ही जीतती है, कोतवाल साहब शायद आगे इससे सबक जरूर लेंगे और भक्तों ने हंसी मजाक के साथ बात आई गई कर दी। मगर मुझे इस बात का घमंड जरूर हुआ कि मैं कोतवाल का जूता हूं।

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